Friday, January 14, 2011

वाराणसी: अखिल भारतीयता के लक्षण

सभी तीर्थ जो काशी में अवस्थित हैं उनकी स्वयं की ऋतुयात्राएँ भी हैं| तात्पर्य यह कि सभी तीर्थों के दर्शन के लिए वर्ष का एक अपना-अपना समय नियत होता है| चार धाम, सप्तपुरियों व द्वादश ज्योतिर्लिंगों के विषय में हम पहले ही जान चुके हैं| आज हम यह जानेंगे कि यह तीर्थ वाराणसी में किन-किन स्थानों पर अवस्थित हैं तथा पौराणिक मान्यताओं के आधार पर वर्ष के किस काल खंड अथवा मास में इनका दर्शन फलदायक होता है| साथ ही लेख के अंत में हम काशी के अनेक अद्भुत पहलुओं में से कुछ एक को जानेंगे|
शुभारंभ करते हैं चार धामों से| बद्रीनाथ धाम, जो वस्तुतः उत्तराखंड की हिमालयी श्रृंखला में स्थित है, काशी में नर-नारायण तीर्थ के नाम से जाना जाता है जो ‘गायघाट’ और ‘त्रिलोचन घाट’ के मध्य स्थित है| केदार मंदिर के प्रांगण में भी भगवान बद्रीनाथ का एक चित्र है| रामेश्वरम, जो वास्तव में तमिलनाडु के सुदूर दक्षिण में स्थित है, का वास पंचक्रोशी मार्ग पर स्थित रामेश्वर मंदिर पर माना जाता है व साथ ही साथ ‘मान-मंदिर घाट’ पर स्थित रामेश्वर मंदिर भी समान रूप से मान्य है| पुरी जो उड़ीसा में है तथा अपने विशाल रथयात्रा महोत्सव के लिए मशहूर है, ‘अस्सी घाट’ के समीप स्थित जगन्नाथ मंदिर एवं उसके परिसर में माना जाता है| द्वारिका धाम, जो सौराष्ट्र, गुजरात में स्थित है, उसका वास शंकुधारा नामक स्थान पर है जहाँ एक कुण्ड स्थित है जो श्रीकृष्ण को समर्पित एक मंदिर से सटा हुआ है|
अब बात करते हैं, सप्तपुरियों की| अयोध्या जिसे हम राम की नगरी के रूप में जानते हैं, उसे रामापुरा क्षेत्र में स्थित राम मंदिर और उससे लगे रामकुण्ड में स्थित माना जाता है| यहाँ दर्शन करने के लिए ज्येष्ठ-आषाढ़ मास को उत्तम माना गया है| अनोखी मथुरा नगरी को बकरिया नामक कुण्ड के आसपास स्थित माना गया है| वसंत ऋतु एवं चैत्र मास में इस तीर्थ का दर्शन करना श्रेष्ठ माना गया है| हरिद्वार को अस्सी घाट पर स्थित माना गया है यद्यपि किसी मंदिर अथवा धार्मिक प्रतीक, जो हरिद्वार को इंगित करता हो, का यहाँ अभाव है| शीत ऋतु के माघ मास में यहाँ दर्शन करने का ग्रंथों में उल्लेख है| ‘पञ्चगंगा घाट’ (जहाँ से देव-दीपावली शुरू हुई) पर स्थित बिन्दुमाधव के मंदिर के बगल में कांची तीर्थ अवस्थित माना गया है| यहाँ दर्शन पूजन हेतु कार्तिक मास का उल्लेख है| उज्जैन नगरी का वास कालेश्वर मंदिर और कृतिवास मंदिर के मध्य माना गया है| चूँकि कृतिवास मंदिर अब एक मस्जिद है तो श्रद्धालुओं की भावना मृत्युंजय महादेव मंदिर के प्रांगण स्थित कालेश्वर, वृद्ध कालेश्वर एवं महा कालेश्वर मंदिरों पर केंद्रित रहती हैं| यहाँ तीर्थ करने के लिए पौष-माघ मासों को उत्तम माना गया है| द्वारिका के विषय में हम पहले ही जान चुके हैं|
अब हमारा रुख होगा देश की विभिन्न दिशाओं में फैले ज्योतिर्लिंगों की वाराणसी में अवस्थिति की तरफ़| इन ज्योतिर्लिंगों को ‘स्वयं-भू’ माना गया है| सर्वप्रथम हम इन लिंगों के नाम और भारत वर्ष में इनकी वास्तविक स्थिति के बारे में जानेंगे तत्पश्चात हम काशी में इनके वास स्थान पर चर्चा करेंगे| ज्योतिर्लिंगों के नाम इस प्रकार हैं – सोमनाथ (गुजरात), महाकालेश्वर (उज्जैन), वैद्यनाथ (बिहार), भीमशंकर (असोम तथा महाराष्ट्र), केदारनाथ (उत्तराखण्ड), ओंकारनाथ (म०प्र०), विश्वेश्वर/विश्वनाथ (वाराणसी) आदि| सोमनाथ को ‘दशाश्वमेध घाट’ के उत्तर में ‘मान-मंदिर घाट’ पर स्थित माना गया है| महाकाल को वृद्धकालेश्वर मंदिर में स्थित माना गया है| वैद्यनाथ का वास कमच्छा क्षेत्र में स्थित माना गया है| भीमशंकर, प्रसिद्ध कचौड़ी गली स्थित काशी-करवट मंदिर में अवस्थित हैं| केदारनाथ का वास ‘केदारघाट’ स्थित केदारेश्वर मंदिर में है| ओंकारेश्वर को मच्छोदरी क्षेत्र में स्थित माना जाता है तथा विश्वेश्वर या विश्वनाथ, दशाश्वमेध के उत्तर में विश्वनाथ गली में अपने मूल स्थान पर शोभायमान हैं|
उपर्युक्त धामों, पुरियों और ज्योतिर्लिंगों के अलावा भारत भूमि पर अनेक पावन तीर्थ उपस्थित हैं जिनका अत्यधिक महत्त्व है| प्रयाग इनमें से सबसे बड़े नामों में से एक है| प्रयाग, जो इलाहाबाद के नाम से भी जाना जाता है, का काशी में एक नहीं दो-दो स्थानों पर वास माना जाता है| पहला है दशाश्वमेध घाट के निकट ‘प्रयाग घाट’ पर| दूसरा स्थान है ‘पञ्चगंगा घाट’ स्थित बिंदु-माधव मंदिर| कुरुक्षेत्र का भी हमारे पुराणों एवं ग्रंथों में बड़ा महात्म्य है| इसे ‘कुरुक्षेत्र’ नामक एक विशाल कुण्ड के समीप स्थित माना गया है जो नगर के दक्षिणी भाग में है| असोम स्थित प्रसिद्ध शक्ति पीठ कामाख्या धाम, कमच्छा क्षेत्र में स्थित है जो कामाख्या का ही अपभ्रंश है| पशुपतिनाथ (काठमांडू) का वास ‘ललिता घाट’ स्थित नेपाली मंदिर में माना जाता है| तिब्बत स्थित कैलाश-मानसरोवर तीर्थ का हिंदु एवं बौद्ध दर्शन में अत्यंत श्रद्धेय स्थान है| यह ‘नारद घाट’ के ठीक बगल में ‘मानसरोवर घाट’ पर स्थित है| पवित्र नर्मदा नदी जिनके मार्ग का प्रमुख शहर रीवां है का वास ‘रेवड़ी तालाब’ नामक क्षेत्र में स्थित है जो रीवां का ही अपभ्रंशित रूप है| गोदावरी नदी की अवस्थिति पर ही शहर की हृदयस्थली गोदौलिया (गोदावरी का अपभ्रंश) का नाम पड़ा है|
अभी तक हमने वाराणसी की अखिल भारतीयता के लक्षणों को केवल धार्मिक दृष्टिकोण से परखा है पर इसके कई पक्ष हैं| इनमें से एक है इसका सांस्कृतिक पक्ष जो पाश्चात्य सभ्यता के लोगों में विशेष रूप से लोकप्रिय है| ‘जन-गण-मन’ की राष्ट्रीय अवधारणा को साकार करती काशी पर चर्चा हम इस श्रृंखला के प्रथम आलेख में कर ही चुके है| काशी को लघु भारत की संज्ञा केवल इसलिए नहीं दी जाति कि देश भर के लोग यहाँ रहते हैं बल्कि यहाँ के दैनिक जीवन में उनकी संस्कृतियों का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है| हम यहाँ ऐसे लोगों से भी मिल सकते हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में अपने गाँव या शहर के बाहर कुछ नहीं देखा पर वे काशी आये हैं| हम गंगा आरती में पर्दानशीं महिलाओं की उपस्थिति भी देख सकते हैं| यह आश्चर्यजनक अंतर्विरोधाभास ही लोगों को बरबस ही काशी की ओर बारम्बार खींच कर लाता है| कुछ ऐसा भी है काशी के बारे में जिसे शब्दों में व्यक्त करना किसी के भे सामर्थ्य के बाहर है| उसका केवल आभास किया जा सकता है जो वाराणसी से एक अभिन्न बंधन का निर्माण करता है| वाराणसी एक सरताज के रूप में प्रतिष्ठित रहा है न सिर्फ़ भारतीयों के लिए अपितु विदेशियों के लिए भी| पूरे विश्व से विद्वान, लेखक, विचारक आदि सदैव से यहाँ आते रहे हैं| हर कोई बनारस के प्रति अपना व्यक्तिगत दृष्टिकोण रखता है| हम वाराणसी के बारे में चाहे जितना भी लिख-पढ़ लें, यह विषद विषय अपनी विस्तृतता के चलते अधूरा ही रह जाता है| शेष अगले भाग में …..

वाराणसी : एक अखिल भारतीय नगर

काश्याः सर्वा निःसृता सृष्टिकाले
काश्यामन्तः स्थिति काले वसन्ति|
काश्यां लीनाः सर्वसंहारकाले
ज्ञातव्यास्ताः मुक्तपुर्यो भवन्ति||
“सृष्टि काल में सभी तीर्थ एवं पवित्र क्षेत्र काशी से ही उद्भूत होते हैं और प्रलय के काल में उसमें ही लीन हो जाते हैं| इतना ही नहीं, काशी में ही इनका निरंतर वास माना जाता है और इनकी अपनी-अपनी ऋतु यात्रायें भी होती हैं|” एक जीवंत नगर के रूप में काशी या वाराणसी की महत्ता का इससे अच्छा उदाहरण देना असंभव तो नहीं पर दुष्कर अवश्य है| उपर्युक्त श्लोक काशी के अखिल भारतीय स्वरुप को प्रतिपादित करता है| देश भर में फैले संस्कृति, धर्म, जीवनशैली, रंग-रूप, जाति-धर्म, बोली-भाषा आदि के विविध प्रकार वाराणसी में एक समग्र-सकल रूप धारण कर लेते हैं| यह भारत के ‘अनेकता में एकता’ के विशेषण का एक साक्षात् उदाहरण है| वाराणसी की उसकी सम्पूर्णता में व्याख्या करना किसी एक शब्द, वाक्य, छंद, पृष्ठ, पुस्तक, श्रृंखला या जीवनकाल में संभव नहीं है|ठीक उसी प्रकार जैसे कि काशी में ही जन्म लेकर शतायु प्राप्त करने वाले महान यायावर भी काशी की असंख्य घुमावदार वीथियों में से हर एक का साक्षात्कार नहीं कर पाते| जैसा कि माननीय केदारनाथ सिंह जी ने अपनी कविता में काशी के रूप का चित्रण किया है, “अद्भुत है इसकी बनावट, यह आधा जल में है, आधा मन्त्र में, आधा फूल में है, आधा शव में, आधा नींद में है, आधा शंख में, अगर ध्यान से देखो तो यह आधा है आधा नहीं है|” प्रकाश की खोज में निरंतर लीन देश [भारत = भा(प्रकाश) + रत(लीन)] की यह प्रकाशित-ज्योतित करने वाली अद्भुत नगरी काशी (काश = ज्योतित करना) है| प्रकाश की नगरी, मोक्षदायिनी, जित्वरी (जीत देने वाली), आनंद-कानन, महाश्मशान, त्रैलोक्यन्यारी, वाराणसी, बनारस, घाटों व मंदिरों का शहर आदि जैसे अनेकानेक संज्ञाओं और विशेषणों से अलंकृत इस चमत्कृत कर देने वाले नगर का मर्म समझने के लिए इसका ही एक अंग बनना पड़ता है, इसे अपने अंदर जीना पड़ता है| इसे समझना संभव है पर इसे जान लेना नहीं| इसे शब्दों में व्यक्त करना सूर्य को दिया दिखाने जैसा है| इसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है| एक बार काशी से दूर रहते हुए मेरी व्यथा निम्न पंक्तियाँ बखूबी बयां करती हैं – सपनों में आकर सताने लगा है, नीदों से मुझको जगाने लगा है; कोई याद आये न आये मुझे, बनारस बहुत याद आने लगा है: काशी से काशीवासियों का आत्मिक जुड़ाव भी इस नगर की जीवन्तता का एक प्रमुख कारक है (मेरे ब्लॉग का पता भी http://kashiwasi.jagranjunction.com है)| शताब्दियों से देश-विदेश से अनेक यात्री और यायावर यहाँ आते रहे हैं और इसपर मुग्ध होते रहे हैं| फ़ाह्यान, ह्वेनसांग, संत ज्ञानेश्वर, गौतम बुद्ध, गुरुनानक, चैतन्य महाप्रभु, तुलसीदास, रैल्फ़, फिर्च, तावेर्निये, फ्रांसुआ बर्नी, जेम्स प्रिंसेप, मिर्ज़ा ग़ालिब आदि जैसे नामों से भरी ये फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है| इनमें से बहुत से लोग तो बनारस पर इस क़दर फ़िदा हुए कि हमेशा के लिए यहीं के होकर रह गए| काशी में तो ‘सात वार, तेरह त्यौहार’ हैं| काशी नित्योत्सवा, निरंतर, चिर है; शाश्वत है, सनातन है| इसे समझना मुमकिन है, बयां करना मुश्किल| जो भी यहाँ जिसकी खोज में आया, उसने वो पाया कोई ख़ाली हाथ नहीं लौटा|
काशी या वाराणसी के एक ‘अखिल भारतीय’ नगर होने के कई आयाम हैं| धार्मिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, हर तरह से| हिंदू धर्म में चार धाम व सप्तपुरियों का उल्लेख है| इन्हें पवित्रतम स्थानों का दर्ज़ा प्राप्त है| बद्रीनाथ, जगन्नाथ, द्वारिका व रामेश्वरम चार दिशाओं में स्थित चार धाम हैं| सप्तपुरियों में अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, उज्जैन, द्वारिका व कांची हैं| यह सब काशी में उपस्थित हैं| प्रयाग, कामाख्या, मानसरोवर, पशुपतिनाथ, नर्मदा, गोदावरी, क्षिप्रा, पुष्कर, वैद्यनाथ, केदारनाथ इत्यादि तीर्थ भी यहाँ उपस्थित हैं| यहाँ द्वादश ज्योतिर्लिंग भी अवस्थित हैं| काशी में यमराज का आगमन निषिद्ध है| यहाँ के प्राणियों की जीवन-मृत्यु का हिसाब काशी के कोतवाल के रूप में नियुक्त ‘कालभैरव’ रखते हैं| विभिन्न देवी-देवता यहाँ की आठ दिशाओं के रक्षक हैं| काशी शंकर के त्रिशूल पर टिकी है| प्रलयकाल में भी यह नष्ट नहीं होती| काशी की विलक्षणता का एक प्रमुख उदाहरण है – सारे संसार के नगरों में लोग जीने, खाने, कमाने की ललक लेकर प्रवास करते हैं पर काशी ही एकमात्र नगर है जहाँ लोग मृत्यु व मोक्ष की कामना लेकर आते हैं|
भारत के अन्य शहरों की तुलना में वाराणसी में एक अनोखापन है| यहाँ की चारित्रिक और पारंपरिक भिन्नता हर उस व्यक्ति को द्रष्टव्य हो सकती है जिसने यहाँ के सकारात्मक और श्रद्धा से परिपूर्ण दैनिक जीवन को देखा हो और यहाँ के इतिहास की कुछ जानकारी रखता हो| और तभी यहाँ के अनोखे विरोधाभासी समाचरण को जाना जा सकता है| देश-विदेश के अनेक लोगों ने काशी की महिमा का अपने शब्दों में बखान और गुणगान किया है| ग़ालिब ने अभिभूत हो कर कहा –
तआल्लोलाह बनारस चश्मेबद्दूर
बहिश्ते खुर्रमो फ़िरदौसे मामूर
इबादतखानाए नाकूसियाँ अस्त
हमाना काबए हिन्दोस्तां अस्त
बनारस बहुत खूबसूरत है, अल्लाह इसे बुरी नज़र से बचाए| यह धरती का स्वर्ग है, मंदिरों और शंख बजानेवालों का शहर है| ये हिंदुस्तान का काबा है| लन्दन मिशनरी सोसाईटी के एम० ए० शेरिंग, जिन्होंने यहाँ कई साल गुज़ारे थे, ने कहा – “बनारस न केवल अपनी श्रद्धेय आयु के कारण बल्के अपनी सजीवता और ओज के कारण भी उल्लेखनीय है| इसका सूर्य कभी अस्त नहीं हुआ|”
वाराणसी के अनोखेपन में एक अक्खड़ी, फक्कड़ी, अलमस्त जीवनशैली का अप्रतिम योगदान है| शंकर की नगरी के निवासी भी उन्हीं की तरह अड़भंगी और अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं| यही स्वभाव यहाँ हर वस्तु, हर व्यक्ति में परिलक्षित होता है| गोमुख से गंगासागर तक की अपनी महायात्रा में गंगा पश्चिमवाहिनी ही हैं पर काशी में नियम तोड़ कर वह भी उत्तरवाहिनी हो जाती हैं| काशी का हज़ारों वर्ष पुराना इतिहास इसका मूक साक्षी है| यहाँ भारत के लगभग सभी राज्यों के निवासी वास करते हैं| इतना ही नहीं विश्व भर के देशों यथा – अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, अफ्रीका, स्पेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी , रूस, जापान, चीन, कोरिया, थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों के पर्यटक यहाँ दिख जायेंगे जिनमें से कुछ तो स्थाई रूप से यहीं के होकर रह गए हैं व अन्य का यहाँ आना-जाना लगा रहता है| वाराणसी की यह अनवरत निरंतरता जाने कितने वर्षों से लेकर आजतक निर्बाध चली आ रही है| हिंदुओं के साथ काशी बौद्धों और जैनों के लिए भी पूज्यनीय है| गौतम बुद्ध ने यहीं (सारनाथ) से ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ किया| कई जैन तीर्थंकरों की जन्म और कर्म भूमि भी रहा है काशी| यह सब बातें वाराणसी को अखिल भारतीय स्वरुप ही नहीं अपितु ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की हमारी सनातन परंपरा को चरितार्थ करता हुआ वैश्विक स्वरुप प्रदान करती हैं|
भौगोलिक दृष्टि से भी वाराणसी एक अति महत्वपूर्ण नगर है| अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण काशी प्राचीन काल से ही एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र रही है| उस समय परिवहन के समुचित साधन न होने के कारण नदी मार्ग सर्वोत्तम माना जाता था| यहाँ व्यापार करना, कारोबार में शर्तिया सफलता का सूचक था और इसी कारण से इसक एक नाम ‘जित्वरी’ भी व्यापारी वर्ग के बीच प्रचलित था| भले ही आज काशी को सम्मिश्र भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि ऐतिहासिक नगर माना जाता है परन्तु इसके उद्भव और विकास के पीछे इसकी व्यापारिक व भौगोलिक स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान है| गंगा के उत्तरी तट पर प्राकृतिक रूप से बाढ़ रोधी धरती पर बसे इस नगर के विकास में नदी मार्ग ने अहम किरदार अदा किया है| विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों के साथ-साथ पुराणों, बौद्ध साहित्य व जैन साहित्य में भी काशी का अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है| व्यापारिक उद्भव के कारण धीरे-धीरे अनेक क्षेत्र के लोग स्थायी रूप से यहीं बस गए होंगे और वाराणसी की सम्मिश्र संस्कृति की आधारशिला पड़ी होगी|
वाराणसी जीवन के विविध आयामों का संतुलित संगम है| धर्म, विद्या, कला और व्यापार के केन्द्र के रूप में विख्यात इस नगर की बहुआयामी एवं अद्वितीय संस्कृति का वर्णन किये बिना इसके बारे में कही गई कोई भी बात अधूरी रहेगी| जीवन के ललित पक्ष यथा – संगीत, कला, हस्तशिल्प, वस्त्र, खान-पान, रहन-सहन इत्यादि ने वाराणसी की छवि को रंगीला और आभा से ओत-प्रोत बना दिया है| विश्व में शायद ही कोई और ऐसा नगर होगा जहाँ संस्कृति के इतने विविध, बहुरंगी और अचंभित कर देने वाले आयाम दिख सकें| संगीत, कला व खानपान के इस महासंगम पर कुछ चर्चा करना नितांत आवश्यक हो जाता है| संस्कृति के हर पक्ष में वाराणसी ने अपनी खुद की एक विशिष्ट शैली ईजाद की है जिसके साथ ‘बनारसी’ विशेषण लग जाता है| संगीत घराने, कला शैली या अन्य सामान्य वस्तुएँ ‘बनारसी’ विशेषण जुड़ते ही विशिष्ट हो जाती हैं जैसे – बनारसी पान, बनारसी साड़ी, बनारसी मिठाई आदि|
समय-समय पर हर क्षेत्र से जुडी महान हस्तियां बनारस में जन्म लेकर कृतार्थ हुईं और विश्व को नतमस्तक कर वाराणसी का परचम लहराया है| चाहे साहित्य क्षेत्र के आधुनिक हिंदी के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र, छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी व रामचंद्र शुक्ल हों या फिर संगीत क्षेत्र के पंडित जगदीप, पंडित रामसहाय, सिद्धेश्वरी देवी, कंठे महाराज, किशन महाराज और गिरिजा देवी हों, सभी ने वाराणसी की सर्वोत्कृष्टता को नित नई पराकाष्ठा तक पहुँचाया है| मध्यकाल में तुलसीदास व मेधा भगत जैसे अनन्य भागवत रहे हों या फिर कबीर, रैदास जैसे सामाजिक चेतनासंपन्न कवि, तैलंग स्वामी हों या बाबा कीनाराम| यहाँ के पण्डे-गुण्डे, ठग, रईस आदि सब प्रसिद्द रहे हैं| रांड़-सांड़-सीढ़ी-सन्यासी से लेकर बनारस के ‘खर कचौड़ी-तर जलेबी’, रबड़ी-मलाई, मगदल, मलइयो और पान तक सभी प्रख्यात हैं| यहाँ की काष्ठकला, पीतल उद्योग, हाथी दांत की कलाकारी और बनारसी साड़ी का तो कोई जवाब ही नहीं| तबलावादन की ‘बनारसबाज़’ शैली से आज सम्पूर्ण विश्व के संगीत प्रेमी परिचित हैं| पण्डित रामसहाय द्वारा प्रवर्तित यह शैली अपने अनूठे परन, लहरा, छंद और प्रकरण के लिए विश्वविख्यात है| इसके अतिरिक्त ठुमरी, दादरा, ख्याल, टप्पा, ध्रुपद, धमार, कजरी, चैती, होरी इत्यादि गायन शैलियाँ वाराणसी में ही पुष्पित-पल्लवित हुईं जिसकी आधारशिला बुद्धू मिश्र के घराने द्वारा रखी गई| सारंगी, पखावज और शहनाई वादन में पण्डित बादल मिश्र, पण्डित भोलानाथ पाठक व नन्दलाल जी का नाम प्रारंभिक मार्गदर्शकों के रूप में लिया जा सकता है वहीँ बीसवीं सदी में इस परंपरा को विश्वस्तर पर लोकप्रियता दिलाई हिंदुस्तान के अज़ीम फ़नकार उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने| कत्थक नृत्य के विकास के लिए दुल्हाराम जी और गणेशीलाल जी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं| चित्रकला के क्षेत्र में अपनी स्थानीय विशिष्टता और रूपरेखा के चलते वाराणसी ने आधुनिक भारत में एक अलग स्थान प्राप्त किया है| सर्वप्रथम यह नगर ही असंख्य चित्रों की विषय वस्तु बना, कंपनी स्कूल ऑफ पेंटिंग का उद्भव हुआ और नगर ने अतीत के भित्ति चित्रों को संजोए रखा| इसमें पाश्चात्य विद्वानों का भी अहम योगदान रहा है| वास्तुकला में मिश्रित शैलियाँ दिखाई पड़ती हैं जिनमें हिंदू, बौद्ध व जैन मंदिर, मस्जिदें व मकबरे, चर्च व विभिन्न घाट सम्मिलित हैं| काशी की मूर्तिकला व हस्तशिल्प का भी अपना अलग स्थान है|
वाराणसी अपने अंदर एक वैभवशाली और गौरवमय अतीत, एक दृढ संकल्प वर्तमान समेटे हुए है जो एक सुनहरे भविष्य की ओर इंगित करते हैं| वाराणसी ने इतिहास रचे हैं, वर्तमान को सहेजा और संजोया है और निश्चित ही भविष्य को मूर्त रूप देने में अपनी महती भूमिका निभाएगा| भारत जैसे महान देश की सांस्कृतिक एकता के दूत के रूप में वाराणसी ने अग्रणी रहकर न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश बल्के समस्त देश का मस्तक गर्व से ऊँचा कर दिया है| वाराणसी ने बंधनों और वर्जनाओं को तोड़ कर नई परम्पराएं और मिसालें भी क़ायम की हैं पर इस बात का हमेशा ध्यान रखा है कि नैतिक मर्यादा न टूटने पाए| इस नगर को इसकी सम्पूर्णता में जानना, समझना और अनुभव करना ही अपने आप में एक विरल और अनुपम अनुभूति है| रहस्य और ज्ञान की परतें खोलते-खोलते लोग स्वयं ही इस नगर के एक अभिन्न अंग बनते गए| वाराणसी ने सबको उसके मूल रूप में अपनाया है, दिल खोल कर आत्मीयता का अमृत लुटाया है और लोग भी इसी के होकर रह गए| जिसने वाराणसी को जिया है वह दुनिया के किसी भी कोने में चला जाए बनारस सदैव उसके साथ-साथ चलता है, उसके अंदर मौजूद रहता है और उस व्यक्ति को जानने वालों को भी अपने दर्शन के लिए प्रेरित करता है| सही मायनों में वाराणसी अखिल भारत का प्रतिनिधि है जो पूरे देश की बहुल संस्कृति की एक सकल छवि प्रस्तुत करता है| पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्राविण, उत्कल, बंग, विन्ध्य, हिमाचल, यमुना, गंगा की राष्ट्रीय अवधारणा अगर कहीं साकार होती लगती है तो वह वाराणसी ही है| और अंततः, एक ‘अखिल भारतीय’ नगर के रूप में वाराणसी अतुल्य है, अभूतपूर्व है, अद्वितीय है|

क्यूँ हो गया??

ये तो सपना था सज़ा क्यूँ हो गया?
जो यार था वो बेवफ़ा क्यूँ हो गया?
पूछिए दीवानों से बताएँगे वो
दर्द ही ख़ुद ही दवा क्यूँ हो गया?
जिसको बनने में लग गई मुद्दत
एक ही पल में तबाह क्यूँ हो गया?
अश्क़ जिसके थे मेरे मोती
आज मुझसे ही ख़फ़ा क्यूँ हो गया?
निकला जो ‘वाहिद’ दिल से आह का मिसरा
वो ख़ुदा के पास दुआ क्यूँ हो गया?
हम तो इसी बस्ती के वाशिंदे थे
आज हर चेहरा नया क्यूँ हो गया?

गंगा : राष्ट्रीय नदी पर राष्ट्रीय शर्म

हज़ारों वर्षों पूर्व प्रस्फुटित भारतीय संस्कृति ने बदलते समय के साथ अनेक बदलावों को आत्मसात किया है, अनेक बाह्य संस्कृतियों के साथ वक्त-वक्त पर हुई पारस्परिक क्रियाओं के माध्यम से नए संस्कारों को अंगीकार किया है| पर उसके मूल स्वभाव और प्रवृत्ति को रंचमात्र भी क्षति नहीं पहुंची| मूल स्वभाव से तात्पर्य है ‘समस्त विश्व को अपना परिवार-कुटुंब मान कर चलना’, और इसीलिए निःस्वार्थ रूप से सबके कल्याण की कामना करना तथा उसके लिए प्रयास करना| अगर हम संपूर्ण विश्व की बात करें तो उसमें मनुष्य के साथ-साथ समस्त चराचर जगत यथा – मुख़्तलिफ़ तहज़ीबें, प्राणी जगत एवं प्राकृतिक धरोहरें भी शामिल होंगे|
माना के इंसान ने ग़ैरत और खु़द्दारी का चोला उतार फेंका है और खु़दगर्ज़ी का चश्मा आँखों पर चढ़ा लिया है जिसे सच को दिखाने से परहेज़ है और अगर सच दिखा भी तो उसे अनदेखा कर देने की आदत| मगर इसका ये मतलब हरगिज़ नहीं के खु़द के सिवा कुछ नज़र ही न आये| चलो, इंसान खु़दगर्ज़ ही सही पर उनका क्या जो बेगर्ज़ बरसों-बरस से बिना कुछ चाहे-मांगे हमारी ज़रूरतों को पूरा करते आ रहे हैं और जिनके बग़ैर ज़िंदगी की कल्पना करना भी बेमानी है| क्या उनके लिए हमारी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं है, वो भी तब जब वह कोई इंसान नहीं|
यहाँ बात हो रही है हमारी राष्ट्रीय नदी गंगा की| कभी कबीरदास ने कहा था “बृच्छ न कबहूँ फल भखै, नदी न संचै नीर; परमारथ के काज को साधुन धरा सरीर|” गंगा हज़ारों वर्षों से अजस्रा-अविरला का रूप धरे हम तुच्छ मानवों के लिए जीवनदात्री की भूमिका का निःस्वार्थ भाव से निर्वाह किये जा रही हैं| इसके बदले उन्हें हमसे कुछ भी अपेक्षित नहीं था मगर हाय ये इंसानी फ़ितरत, जिसने उन्हें कुछ दिया तो नहीं क्यूंकि उन्हें हमसे कुछ चाहिए ही नहीं था बल्के जो कुछ उनके पास था उसे भी उनसे आहिस्ता-आहिस्ता छीन लिया| बेशर्म हिंदुस्तानियों ने अपनी ही माँ का चीर-हरण कर लिया|
गंगा मात्र एक नदी नहीं अपितु भारतीय जनमानस की आस्था, आध्यात्मिकता की प्रतीक भी हैं| भारतीय संस्कृति के उद्भव की गाथा से लेकर आज तक घटित हुए सभी बदलावों की असंख्य वर्षों से साक्षी रही हैं गंगा| देवीस्वरूपा माँ गंगा के साथ किये गए हम इंसानों के कुत्सित-भत्सर्नीय आचरण ने उन्हें एक ऐसे मुक़ाम पर पहुंचा दिया है जहाँ जीवनदायिनी गंगा स्वयं विलुप्तता के भावी दंश से छटपटा रही हैं, संघर्ष कर रही हैं| समस्त भारत की बहुसंख्य जनता के जीवन के अभिन्न अंग के रूप में गंगा जन्म, विवाहादि से लेकर मृत्युपर्यंत सभी प्रमुख संस्कारों से जुड़ी हुई हैं| यहाँ तक कि देहावसान के पश्चात भी पितरों की अतृप्त आत्माओं को इन्हीं के माध्यम से तर्पण-अर्पण किया जाता है| शिव-विष्णु के बीच की कड़ी हैं गंगा| हमारे खेतों की सिंचाई से लेकर भूमिगत जलस्तर तथा उर्वरता बनाये रखना, हमें दाना-पानी से लेकर यातायात तक मुहैया कराना व हमारे इहलोक से लेकर परलोक तक की सुधि लेकर उसे सुधारने का सारा बोझ अनगिनत बरसों से इन्हीं पुण्यसलिला के पावन कन्धों पर रहा है| भागीरथी, अलकनंदा, मन्दाकिनी, जान्ह्वी आदि अनेक नामों से जानी जाने वाली गंगा आज अपने खु़द के अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं| भगीरथ के पुरखों को तारने से शुरू इनका ये तवील सफ़र आज तक अनवरत जारी है और अगर हम चाहेंगे तो हमेशा जारी रहेगा| आज फिर गंगा को किसी भगीरथ की आवश्यकता है, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि तब भगीरथ के पुरखों के लिए अवतरित हुईं गंगा आज खु़द को तारे जाने के लिए टकटकी लगाये मरणासन्न सी हमारी तरफ़ देख रही हैं| हम सब को अपने अंदर सोए हुए भगीरथ को जगाना होगा, बाहर लाना होगा अन्यथा विगत सहस्रों वर्षों का इतिहास अपने-आप में समेटे हुए गंगा खु़द तवारीख़ के पन्नों में सिमट कर रह जाएँगी, खु़द इतिहास बन कर रह जाएँगी|
यदि आंकड़ों में बात करें तो गंगा की तुलना में दुनिया की कोई भी नदी नहीं ठहर सकती| ख़ास तौर पर उनके द्वारा पोषित आबादी के मुआमले में| देवी गंगा उत्तराखण्ड राज्य में हिमालय स्थित गंगोत्री-गोमुख ग्लेशियर, जो समुद्र से क़रीब ४,१०० मीटर ऊँचा है, से प्रद्भूत होकर अनेक छोटे-बड़े शहरों से होते हुए तक़रीबन २,५०० कि०मी० की यात्रा करके सुंदरबन डेल्टा बनाते हुए बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती हैं| अपनी इस महायात्रा में वह ५ राज्यों के ५० से भी ज़्यादा बड़े शहरों और अनेक छोटे कस्बों के लगभग २० करोड़ से भी ज़्यादा लोगो को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पोषित करती हैं| एक अनुमान के अनुसार रोज़ाना लगभग २५ से ३० लाख लोग गंगा में स्नान करते हैं| इनके मार्ग का सबसे बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश से होकर गुज़रता है और यहीं पर इनकी स्थिति सबसे दयनीय भी है| रोज़ाना करोड़ों-करोड़ लीटर अवजल-मलजल सैकड़ों छोटे-बड़े नालों द्वारा इनमें आकर मिलता है और इनकी शुद्धिकरण की निःसंदेह क्षमता को कमज़ोर करता जाता है| वेदों में भी कहा गया है कि गंगा के स्मरण और दर्शन मात्र से समस्त पाप धुल जाते हैं फिर उनका आचमन करने और उनमें स्नान करना तो हज़ारों तीर्थ करने के बराबर है| लेकिन आज उनकी ये स्थिति है कि हरिद्वार के बाद से उनकी गुणवत्ता प्रभावित होनी शुरू हो जाती है और उत्तर प्रदेश में प्रवेश करने के बाद तो उनका जल आचमन योग्य भी नहीं रह जाता|
अब बात करें सरकारों, नेताओं और स्वयं जनता की| १९८६ में प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने वाराणसी से गंगा एक्शन प्लान के प्रथम चरण की शुरुआत की| उसके बाद द्वितीय चरण भी प्रारंभ हुआ मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात| इसी दरमियान प्लान का बजट कई गुना बढ़ गया, हज़ारों-हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च हो गए बल्कि यूँ कहें कि गंगा में बहा दिए गए| सरकारें सोई रहीं, और गंगा तड़पती-बिलखती रहीं अपने हाल पर| इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की बारम्बार फटकार का भी उनपर कोई असर नहीं हुआ| केवल कुम्भ और माघ मेलों के समय न्यायालयों के निर्देश पर चंद बांधों से कुछेक क्यूसेक पानी छोड़ दिया जाता है जो कि किसी भी दृष्टि से अपर्याप्त है| काग़ज़ो पर काम होता रहा और हम सब भी मूक दर्शक बने सबकुछ देखते रहे| वाराणसी के वर्तमान सांसद के केन्द्रीय मंत्रित्वकाल में टिहरी में विशालकाय बांध तैयार हुआ और अपने उद्भव के बाद से प्रथम बार गंगा का अविरल-अजस्र प्रवाह बाधित किया गया| आज पूछने पर वह कहते हैं कि इस बाँध की परियोजना तो १९७० में ही मूर्त रूप ले चुकी थी सिर्फ़ उसका क्रियान्वन हमारे द्वारा किया गया| क्या वे इसे रोक अथवा इसमें फेरबदल नहीं कर सकते थे? और तो और उनसे पहले २००४ से २००९ तक वाराणसी के सांसद रहे सज्जन अपनी ही पीठ थपथपाते नहीं थकते कि उन्होंने सीधा हस्तक्षेप करके प्रधानमंत्री द्वारा गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करवाया और प्रधानमंत्री के द्वारा एक गंगा बेसिन संरक्षण अधिकरण का भी गठन हुआ| क्या इतने से ही उनके कर्तव्यों की इतिश्री हो गई? क्या राष्ट्रीय नदी घोषित हो जाने मात्र से गंगा का जल फिर से पहले जैसा शुद्ध हो जायेगा और उनका अस्तित्व आने वाले कई वर्षों के लिए सुरक्षित हो जायेगा? कोई सवाल ही नहीं उठता| ये मुमकिन ही नहीं| समय-समय पर संत समाज द्वारा भी अन्य धर्मों के रहनुमाओं के साथ मिलकर कई तरह की घोषणाएँ की गयीं, अभी हाल ही में तथाकथित गंगापुत्रों द्वारा गंगायात्रा आयोजित की गयी जो उन्हीं के द्वारा होते हुए अनेक छोटे बड़े शहरों में गयी, श्रमदान किया और कार्यशालाएं आयोजित कीं| सिर्फ़ इतने से ही काम नहीं होने वाला|आज मुझे हमारी राष्ट्रीय नदी की परिस्थिति पर शर्म आती है जिसे मैं राष्ट्रीय शर्म का नाम दूंगा|
चलिए एक नज़र डालते हैं कुछेक रास्तों पर जो हम जैसे आमलोग अपना सकते हैं और माता गंगा के संरक्षण में अपना भी कुछ योगदान कर सकते हैं| लोग घरों-मंदिरों में चढ़ाये गए फूलमाला इत्यादि बड़ी ही श्रद्धा के साथ और ध्यानपूर्वक पोलीथीन की थैलियों में भर कर गंगा में विसर्जित करके हाथ जोड़ते हैं| वहीं घाट किनारे बैठा मैं उनकी मूढ़मति को कोसता रह जाता हूँ कि वाह रे धर्मपारायण लोग| अपने पाप धोने के लिए गंगा को मैला कर रहे हो| अब तो बख़्श दो उन्हें| पशुपालक अपने मवेशियों को ले आकर गंगा में ही नहलाते हैं| अनेक लोग उन्हीं के किनारों को शौचालय के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं| ज़्यादातर लोग तो स्नान करते हुए साबुन, शैम्पू, डिटर्जेंट जैसे केमिकलयुक्त पदार्थों का उपयोग करते हैं जो की इनके प्रदूषित होने के प्रमुख कारणों में से एक है| इन सब क्रियाकलापों पर रोक लगा कर हम अपने स्तर से तो कुछ तो रोक लगा ही सकते हैं उनके प्रदूषण पर| हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी लिखा हुआ है कि, “स्वतः वाहिनी शुद्धयते,” अर्थात यदि उनके मूल प्रवाह को बने रहने दिया जाये तो अपनी अधिकतर गंदगी को वे स्वयं ही साफ़ कर लेंगी और जो बाक़ी बचेगा वो काम हमारे ज़िम्मे रह जायेगा| आज उनके ऊपर बने अनेकानेक बांधों ने उनके प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया है और उनके अंदर जो जल बचा हुआ है वो गंगाजल नहीं अपितु विशुद्ध रूप से नालों का गंदला पानी और फैक्टरियों से निकला हुआ हानिकारक कचरा है| एक रास्ता ये भी हो सकता है कि उनके प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए टिहरी बांध के ठीक पहले से एक वैकल्पिक मार्ग पहाड़ों को खोद कर उनकी निकासी के लिए बनाया जाये| जिससे उनका प्रवाह फिर यथावत हो जाये| जब बाँध के निर्माण पर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च हो सकते हैं तो उनके मूलस्वरूप को लौटाने का प्रयास करने में उसका कुछ हिस्सा तो लगाया ही जा सकता है और यक़ीनन ये एक अच्छी शुरुआत होगी| आज हमारे देश में सिर्फ़ गंगा ही नहीं अपितु उनकी सहायक अन्य नदियों यथा – यमुना, गोमती, सरयू आदि का भी कमोबेश यही हाल है| शुभारंभ माँ गंगा से होकर उसका लाभ अन्य सभी तक भी पहुँचाया जाना चाहिए| दृढ़ संकल्प और अदम्य इच्छाशक्ति के बल पर यह अति दुष्कर कार्य भी साध्य है| और हम सब की यही इच्छा और कामना है कि ऐसा ही हो| अतीत के गौरव को वर्तमान में संजोते हुए एक सुनहरे भविष्य की आशा में ….

चंद अशआर!

न कोई ख़ूबसूरत इतना जिसे देखूं मैं खो जाऊं;
न कोई दूजा के मैं इन जज़्बों को दोहराऊँ-संजो जाऊं;
तेरे दीदार का एक लम्हा बहुत है क़ीमती ‘वाहिद’,
उन अनमोल लम्हों को भला कैसे मैं खो जाऊं;
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हर एक शै की मुझसे बेरूख़ी सी लग रही है,
हसीं मौसम में भी कुछ कमी सी लग रही है,
अपनी साँसे भी नेमत और किसी की लग रही है
‘वाहिद’ये ज़िंदगी अचानक अजनबी सी लग रही है;
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अशआर = शेर का बहुवचन

अर्थ बनाम सृजन: रूपया या रचनात्मकता

दो दिन पहले अखबार में प्रकाशित एक विज्ञापन पढ़ा जो बिहार सरकार की तरफ से दिया गया था| “बिहार सरकार ने निश्चय किया है की राज्य का एक राज्य गीत होना चाहिए जिससे उसके इतिहास, परंपरा और गौरव की झलक मिलती हो और बिहार की मिटटी की खुशबु हो| साथ स्कूलों में गाये जाने के लिए एक प्रार्थना भी लिखी जानी है| दोनों ही गीत गेय पदों में लिखित होने चाहिए एवं निर्धारित अवधि के (दो मिनट/तीन मिनट)होने चाहिए| गीतों का चयन राज्य सरकार द्वारा गठित एक समिति स्वतंत्र रूप से करेगी| पुरस्कार के रूप में एक-एक लाख रुपये हैं| एक रचनाकार से केवल एक रचना प्रति श्रेणी अपेक्षित है|”
विज्ञापन पढ़ कर मन में विचार कौंधा| एक लाख रुपये!! छोटा मोटा कवि तो मैं भी अपने आपको समझने का गुमान तो रखता ही हूँ, ऊपर से १+१ = २ लाख रुपये! आह वाह! तुरंत ही कल्पना में सुन्दर और मनभावन दृश्य तैरने लगे..|एक बड़ा सा मंच है… तमाम विशिष्ट लोग उसपर आरूढ़ हैं| मैं सम्मानित हो रहा हूँ..अंगवस्त्रम और चेक के साथ| धड़ाधड़ फोटुएं खींची जा रही हैं| वातावरण करतल ध्वनियों से गुंजायमान हो रहा है| कि अचानक…तन्द्रा टूटती है| मैं अभी भी वहीँ बैठा हूँ और मेरे हाथ में अखबार का वही पन्ना खुला हुआ है| कुछ संतुष्टि भी हुई और कुछ अपने ही ऊपर मैं हंसा भी| चलिए खैर.. इससे आगे बढ़ते हैं|
एक-एक लाख का पुरस्कार अभी भी विचारों के ऊपर हावी है| उठकर गुसलखाने के लिए चलता हूँ तो एक लाख रूपये आँखों के सामने तैरते रहते हैं| शावर के नीचे खड़ा होता हूँ तो पानी की जगह सिक्के गिरते नज़र आ रहे हैं| हूँ चेतनावस्था में पर अवचेतन तो बारम्बार उधर ही खींचे लिए जा रहा है|चलिए निवृत्त होकर नाश्ते की मेज़ की ओर चला हूँ.. नीचे मोज़ाएक के फर्श पर सैंकड़ों-हज़ारों छोटे-छोटे टुकड़े मुझे अलग-अलग श्रेणियों के ५,१०,२०,५०,१००,५००,१००० के नोट और सिक्के नज़र आ रहे हैं|ये क्या हो रहा है… मैं किस संसार में हूँ.. ऐसा क्या अद्भुत घटित हो गया है मेरे साथ जो सब कुछ बदला हुआ दिखाई दे रहा है? विचारों में खोया मैं बैठ जाता हूँ| चाय का कप भी मुझे अब चांदी का नज़र आने लगा है| सोने के चम्मच से पहला निवाला उठता हूँ तो हरी मटर की जगह मोती के दाने द्रष्ट हो रहे हैं| इस छोटे से सरकारी विज्ञापन ने मेरी दशा और दिशा दोनों ही बदल दी है|
विचार सुन्दर होते चले जा रहे हैं| मैं देखता हूँ कि परमाणु निशस्त्रीकरण होने को है, पाकिस्तान हमारे आगे घुटने टेके रहम की भीख मांग रहा है, चीन दरवाज़े पर खड़ा मित्रता की गुहार लगा रहा है, अमेरिकी राष्ट्रपति हमारे प्रथम नागरिक के यहाँ पानी भरने की ड्यूटी पर लग गए हैं,देश से कुपोषण का नामोनिशान मिट गया है.. पोलियो उन्मूलन हो चुका है| अब कहीं दंगे नहीं होते, सहिष्णुता और भाईचारा अपनी पराकाष्ठा पर हैं| दहेज के लिए स्त्रियों को जलाना पुरातीत हो गया है| भारत फिर विश्वगुरु की पदवी धारण कर चुका है|अचानक फिर तन्द्रा टूटती है.. सबकुछ वैसा ही है जैसा मैं कुछ मिनट पहले यहाँ छोड़कर स्वप्नलोक में विचरण करने चला गया था|
अब फिर से वास्तविकता के धरातल पर हूँ लेकिन ये एक लाख रुपये अभी भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे|घूमफिर कर विचार फिर वहीँ केंद्रित हो जा रहे हैं|अंततः अर्थ पूरी तरह से हावी हो कर विद्या के साधनों पर चरम दबाव डाल रहा है और मैं उसके वशीभूत कलम और कागज़ लिए बैठ जाता हूँ|अब कोशिश चालू है| अपने दिमागी घोड़ों को दौड़ाने लगा हूँ| मगर कुछ सूझ ही नहीं रहा| एक रचनाकार का प्रेरणापरक हृदय सर्वप्रथम प्रेरणा मांग रहा है उसके बगैर रचना संभव नहीं| मगर दिमाग में ५०० और १००० के नोट परिक्रमण कर रहे हैं| मैं चाहता हूँ कि शब्द उमड़ कर आयें लेकिन मुझे एक लाख का चेक ही नज़र आता है| मैं इस कशमकश में फंसा हुआ हूँ| आज क्या हो गया है मुझे? यूँ तो एक से एक सुन्दर शब्दों की लहरें हिलोरें मारती रहती हैं मगर आज उस ज्वार का कोई अतापता नहीं| बस भाटा ही भाटा है किनारे से देखने पर सिर्फ़ पथरीली ज़मीन दिखाई दे रही है जिस पर चलना संभव नहीं| वही एक लाख रुपये मुझसे जबरन रचना कराना चाहते हैं और जब प्रयास करता हूँ तो मुझे घेर लेते हैं मेरी सृजनात्मकता के आकाश पर अर्थ के बादल उमड़ने घुमड़ने लगते हैं और प्रेरणा का सूरज मेरी दृष्टि से ओझल हो जाता है|यह कैसा अनोखा विरोधाभासी क्षण है! अपने आप को संयमित करता हूँ| धीरे-धीरे कुछ देर में सब कुछ सामान्य होने लगता है लेकिन वो एक लाख रुपये अब भी कहीं न कहीं से एक बार आकर मन के दरवाज़े पर दस्तक दे जा रहे हैं| हर थोड़े अंतराल पर एक आवाज़ आती है,”भईया, हमें मत भूल जाना. जिस महान साहित्य के सृजन में तुम लगे हो उसका फल तो हम ही हैं.. यदि हम न मिले तो तुम्हारा साहित्य महान नहीं कहलायेगा|” दबाव लगातार बना हुआ है और मैं उस शाश्वत साहित्य की रचना में लगा हुआ हूँ जिसके विचार मात्र से विश्व भर की समस्याएं समाप्त हो गयी थीं| कागज़ पर ध्यान केंद्रित करता हूँ.. ज़हन से कुछ अल्फाज़ उभर कर आते हैं.. कड़ियाँ बनने लगती हैं.. कुछ पंक्तियाँ तैयार हो रही हैं… काफ़ी देर की जद्दोजहद के बाद कुछ पढ़ने लायक दिखाई पड़ता है लेकिन जैसे ही उसका पुनरावलोकन करने चलता हूँ मेरी आदि समस्या यथावत आकर खड़ी हो जाती है.. शब्दों को देखता हूँ तो सौ, वाक्यों में पांच सौ और छंदों में हज़ार-हज़ार के नोट नज़र आने लगते हैं| हाय रे कवि मन! तू ऐसा क्यूँ है? आजतक निःस्वार्थ भावना से साहित्य सृजन में लगा रहा तो क्या कुछ नहीं लिख डाला तुने और आज जब कुछ मिलने की बारी आई तो तेरी बुद्धि,भावना,प्रेरणा, सृजनशीलता आदि को सांप सूंघ गया|रे अभागे! क्या यही तेरी नियति है? तेरी सारी विद्या आज निष्फल होने की कगार पर खड़ी है|
कुछ देर पहले तक रंगीन दिख रही दुनिया अचानक स्याह और काली नज़र आने लगी है| लग रहा है कि अरबों खरबों के नोटों से बना एक विकराल राक्षस मुझे निगलने को दौड़ा चला आ रहा है.. वह मुंह खोलता है तो लाखों के सिक्के तीव्र गति से निकल कर आस पास कि हर वस्तु को तहसनहस करते हुए सारे आलम पर छाते चले जा रहे हैं|मैं सर से पाँव तक मुद्रापाश में आबद्ध हूँ| भागने का कोई चारा नहीं| विवश मैं| आँखों के आगे अँधेरा छाने लगता है और मैं बेहोश होने लगता हूँ..| सहसा फिर मेरी तन्द्रा टूटती है| अब मेरे विचारों में राज्य गीत और प्रार्थना की जगह अपनी विवशता का चिंतन-मनन सर उठा रहा है| कुछ ही देर में अर्थतंत्र पुनः विचारों के धरातल से मनन-चिंतन के पौधों को, जो अभी अभी पल्लवित हुए हैं, उखाड़ कर फ़ेंक देता है और फिर से कलम लेकर बैठ जाता हूँ… शब्द तो अभी भी नहीं सूझ रहे हैं.. ना ही कोई तुकें फ़िट बैठ रही हैं.. फिर कोशिशें जारी हैं| अर्थ बनाम सृजन का रचनात्मक अंतर्द्वंद चल रहा है जिसमें अभी तक तो अर्थ का ही पलड़ा भारी है.. सृजन कोने में खड़ा अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा है| देखिये क्या परिणाम होता है|

ख़ुद की पहचान

मग़रीबपरस्त लोगों द्वारा अक्सर ही कभी हमारी संस्कृति को दकियानूसी बताया जाता है तो कभी उसकी प्राचीनता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिए जाते हैं| मगर उसकी गहराई में जाकर उसे समझने का प्रयास वे नहीं करते, पता नहीं क्यूँ? शायद इसलिए के ये उनकी संकीर्ण बुद्धि में समाने के लिए अत्यधिक विस्तृत और उनके हिसाब से जटिल है| अगर ये कहा जाये के हमारे अपने ही हमारे दुश्मन हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी| प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की मुखालिफत करने वाले उसे झुठलाने की नित नई तरकीबें और कुतर्क खोजते रहते हैं| उदाहरण के लिए आज के युग की मिसाइलों का उल्लेख हमारे ग्रंथों में अग्निबाण के रूप में मिलता है परन्तु उन ग्रंथों कि प्रामाणिकता पर ही प्रश्न उठा दिए जाते हैं| भारत और श्रीलंका को जोड़ने वाले रामसेतु को हिन्दुस्तानी हुकूमत के हुक्मरानों ने ही देश के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष झुठलाने का दुस्साहस किया यहाँ तक की देश की बहुसंख्य जनता की आस्था एवं गहन श्रद्धा को कोरा झूठ और कपोल कल्पना करार दिया| जबकि नासा के उपग्रहीय चित्रों एवं संरचनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि सेतु एक मानव निर्मित संरचना है तथा उसकी आयु हमारे पुराणों और प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित त्रेता युग के तथाकथित समय से मेल खाती है|
ऐसी परिस्थिति में प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का प्रसार तो दूर उसका संरक्षण ही अत्यंत दुष्कर प्रतीत हो रहा है| जिसे पाने में कई युग लग गए हों उसे खोने में कुछ क्षण भी नहीं लगते| भारतीय मेधा की कुशाग्रता ही हमारे ज्ञान की विलुप्ति का सबब बन गई है| अपनी अद्वितीय स्मरण क्षमता के कारण सदियों तक हमारा ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मौखिक रूप से हस्तांतरित होता रहा पर लिपिबद्ध नहीं किया गया| जब वह सब लिपिबद्ध किया गया तो उसी समय को उस ज्ञान की उत्पत्ति का समय मान लिया गया जो सर्वथा अनुचित है|
हमारे आध्यात्म के विषय वास्तविकता में एक परिष्कृत विज्ञान हैं जिन्हें पूरी तरह से समझना आज के आधुनिक विज्ञान के वश में नहीं| हमारे त्योहारों के पीछे भी अनेक ठोस वैज्ञानिक और तार्किक कारण छुपे हुए हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ पर करना आवश्यक है| ये पर्व जो हमारी संस्कृति में आदि काल से अनवरत चले आ रहे हैं, इनका सिर्फ़ आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक महत्व नहीं है| बहरहाल, वैज्ञानिक कारणों की बात करने से पहले ये बताना भी ज़रूरी है कि हमारी सनातन परंपरा सबको साथ ले कर चलने की रही है वो चाहे – क़ुदरत हो, पशु-पक्षी हों या दूसरे समुदाय और उनकी रवायतें हों| सबको अपना बना लेना, सबका अपना लेना, सबको और सबकुछ आत्मसात कर लेना पर उसके बावजूद अपनी विशिष्ट पहचान बनाये रखना, यही हमारी हिन्दुस्तानी तहज़ीब की वास्तविक पहचान है| आईये पर्वों पर एक दृष्टि डालें| दशहरा जैसा कि हम जानते हैं कि बरसात खत्म होने के कुछ बाद आता है, ठीक इसी वक़्त मानसून भी लौट रहा होता है जो कीड़े-मकोड़ों के पनपने का बिलकुल मुफ़ीद मौसम है| दशहरे के रावण के साथ समस्त कीट पतंगे भी जल कर खाक हो जाते हैं और बचे-खुचे पूरे कार्तिक मास के दीप प्रज्ज्वलन और ख़ास तौर से दीपावली के दिन असंख्य दीपक जला कर हम सभी कीटों को आकृष्ट कर लेते हैं जो उन्ही दीपों के लौ में जलकर समाप्त हो जाते हैं तथा हमारा वातावरण फिर शुद्ध हो जाता है| मकर संक्रांति ग्रीष्म ऋतु के आगमन की पूर्वसूचक है| जैसे होली को ही ले लें – होली के आगमन के वक़्त सर्दी अपने समाप्ति पर होती है| सर्दियाँ में अक्सर लोग स्वच्छता के प्रति सजग नहीं रह पाते| आज क़ुदरत के साथ की गयी छेड़खानी के कारण भले ही मौसम का चक्र उलट-पुलट गया हो पर जब हमारी संस्कृति ने अपना स्वरुप ग्रहण किया तब सब ठीक था| होली के समय हलकी ठण्ड होती थी जैसा हमने भी अपने बचपन में महसूस किया और देखा है| अनेक लोग ऐसे होते हैं जो सर्दियों में नहाने से बचते हैं और ये शरीर को रोगी बनाने की तरफ उठाया गया क़दम होता है| होलिका दहन के वक्त एक बड़ा अलाव हमारे सामने होता है जो सर्दी के दो-तीन महीनों की साडी कसर निकल देता है| शरीर पर सरसों का उबटन लगाकर फिर उसे निकाल देने से शरीर स्वच्छ हो जाता है| अगले दिन एक-दूसरे को इस तरह से रंगों में सराबोर कर दिया जाता है के न चाह कर भी हर कोई रगड़-रगड़ कर नहाने के लिए मजबूर हो जाता है, जो फिर से देह को स्वच्छ और निरोग कर देता है| हमारे अन्य प्रमुख त्यौहारों के माने जाने के पीछे भी ऐसी ही तमाम वैज्ञानिक वजहें हैं, जिनका यहाँ वर्णन करना संभव नहीं|
त्योहारों के अलावा हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरत के सामान जो हमारे आसपास, हमारे घर, बगीचों, रसोईयों वगैरह में आदि काल से मौजूद हैं, उनके होने का भी ठोस वैज्ञानिक कारण है|नीम, हल्दी, तुलसी तथा मसाले इत्यादि अपनेआप में औषधि हैं| पूजा के चरणामृत में तुलसीदल शरीर को रोगमुक्त रखता है| आधुनिक शोध ने तुलसी को प्राकृतिक एंटी-बायोटिक साबित किया है जिसके आम अंग्रेज़ी औषधियों कि तरह कोई दुष्प्रभाव नहीं होते| हर घर में तुलसी का पौधा ज़रूर होता है| हल्दी स्वतः सिद्ध अचूक एंटी-सेप्टिक के तौर पर सदियों से मान्य है जिसका केवल लेप ही नहीं किया जाता बल्कि उसे खाया और पिया भी जा सकता है| एक दवा दो काम यानि मरहम भी और वटी भी| वहीं नीम अपने एंटी-बैक्टेरियल, एंटी-फंगल और रक्तशोधन के गुणों के कारण अनादि काल से हमारे समाज में प्रचलित रहा है|
कहने का तात्पर्य ये कि हमारे ऋषियों, मुनियों और ज्ञानियों ने हज़ारों साल पहले ही वो इल्म हासिल कर लिया था जिसे पाने के लिए आज भी आधुनिक विज्ञान भटक रहा है| और इसी कारणवश उसके अस्तित्व से इनकार करता है|
हमारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विज्ञान में एक बुनियादी फ़र्क ये भी है कि आधुनिक विज्ञान विकास की प्रक्रिया में अनेक वर्जनाएं तोड़ डालता है जबके हमारा पुरातन ज्ञान अपनी मर्यादाओं के भीतर रहकर और प्रकृति के अद्वितीय सानिध्य में अर्जित किया गया है| हमारे पुरखों ने कभी क़ुदरत के साथ खिलवाड़ नहीं किया बल्के उसके साहचर्य में वक़्त गुज़ार कर उसके गूढ़ रहस्यों को जाना और अनावरणित किया है| हम यानि आधुनिक मानव इसके सर्वथा विपरीत हैं| ज़ाती खुदगर्जी के आगे घुटने टेके हमारी अंतरात्मा कलुषित हो गई है| इसी तरह आज सारी दुनिया के वैज्ञानिक सूक्ष्म गणितीय गणनाओं के लिए जटिल उपकरणों एवं सुपर-मेगा कंप्यूटरों का प्रयोग करते हैं वह कार्य हमारे ऋषि-मुनि प्राचीन काल से ही वैदिक प्रणाली, उपकरणों एवं वेधशालाओं के माध्यम से एकदम सटीकता से सुगमतापूर्वक करने में पूर्णरुपेण सक्षम थे|
हालांके हमारी संस्कृति में इन सब विषयों-वस्तुओं को आध्यात्म के माध्यम से प्रस्तुत किया गया, विज्ञान से नहीं| इसके पीछे भी एक कारण यह है कि आध्यात्मिकता को अंगीकार करने के लिए आस्था मात्र की आवश्यकता है जो मनुष्य की सहज वृत्ति है जबकि विज्ञान साक्ष्य और तर्क की कसौटी पर तथ्यों को कसता है| ये सब हमारे ज्ञान-विज्ञान की प्राचीनता, उपयोगिता और यथार्थता को सिद्ध करते हैं और हम खुली आँखों वाले अन्धों के समान इन सब पर विश्वास करने में हिचकते हैं| बात मान्यताओं और कुरीतियों की आये तो धर्म के ठेकेदार और मज़हबी अलम्बरदार फ़ौरन उठ खड़े होते हैं और उन्हें अपनी तहज़ीब-संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं पे कुठाराघात होते हुए और उसका अपमान होता हुआ नज़र आने लगता है मगर इन ज़्यादा ज़रूरी चीज़ों के लिए बोलने की, उनकी बात उठाने की ज़हमत करने के लिए किसी के भी पास वक्त नहीं है| अब ज़रूरी है कुछ करना, सिर्फ सोचने से काम नहीं चलने वाला| अपनी महानता को आधुनिकता के परदे में छुपाने से हमें कुछ हासिल नहीं होने वाला| सच से मुंह मोड़ना किसी भी तरह से समझदारी नहीं कहा जा सकता|
इन सबसे परे हमारी संस्कृति में सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हम जिस प्राचीन शाश्वत परंपरा के वाहक हैं उसी को बिसरा रहे हैं, नकार रहे हैं| परन्तु जब हमारा वही प्राचीन ज्ञान-विज्ञान पाश्चात्य देशों द्वारा प्रमाणित और सिद्ध कर दिया जाता है तो वह हमारे लिए सहज स्वीकार्य हो जाता है| ये बेहद शर्मनाक और अफ़सोस के लायक है| अपनी परंपरा पर विश्वास करने और उसका निर्वाह करने के लिए किसी और के या दूसरों के प्रमाणन की आवश्यकता क्यूँ? अगर हम अब भी नहीं चेते तो इसका दुष्परिणाम हमें भुगतना ही होगा| एक ऐसा दुष्परिणाम जिससे होने वाली क्षति को सुधरने का हर प्रयास अपूर्त और निष्फल हो जायेगा|